Thursday, September 4, 2008

धर्म व्यवस्था शास्त्र (क्वालिटी मनेजमेंट सिस्टम)

क्वालिटी मनेजमेंट सिस्टम और स्टैण्डर्ड क्या होते हैं ?

किसी भी संस्था में क्वालिटी मनेजमेंट सिस्टम है या नहीं है इसकी परीक्षा के लिए एक आदर्श (स्टैण्डर्ड) बनाया गया है, जिसे आई एस ओ ९००१ कहते हैं। यह एक लिखित और सर्व-सुलभ दस्तावेज है। आई एस ओ ९००१ का यह दस्तावेज, संस्था चलाने का कोई मंत्र नहीं है; और न ही इसे पढ़ कर कोई प्रबंधन का ज्ञानी बन सका है लेकिन यह संस्था के सफलता की परीक्षा (assessment) का एक साधन है। जैसे, हर पंडित अपना अलग अलग मार्ग (जैसे हिंदू, इस्लाम, ईसायी इत्यादि ) बताता है, ठीक उसी तरह व्यावसायिक और औद्योगिक क्षेत्र में भी आई एस ओ ९००१ के अलावा भी बहुत सारे स्टैण्डर्ड, क्वालिटी मनेजमेंट सिस्टम की परीक्षा के लिए, बाज़ार में उपलब्ध हैं। उदाहरण के लिए डेमिंग अवार्ड, माल्कम बल्रिज अवार्ड, सिक्स सिग्मा इत्यादि। तत्त्व यह है कि स्टैण्डर्ड चाहे कोई भी अपनाया जाय, सफलता इसमें है कि संस्था को उससे क्वालिटी मनेजमेंट सिस्टम का ज्ञान प्राप्त हो और उसकी त्रुटी हीन कार्य करने की क्षमता बढे।

स्टैण्डर्ड का इस्तेमाल बेवजह नहीं है। व्यावसायिक संस्थाओं में ग्राहक के एक भारी आर्डर लेने, और उसे पूरा करने तक का कठिन कार्य, एक चौडी नदी को पार करने जैसा है। शुरू में, डरना तो स्वाभाविक है किंतु प्रबंध की कला में अभ्यस्त तैराक इस नदी को तैर कर पार करना जानता है। इसके अतिरिक्त, एक सावधान तैराक के पास नदी की गहराई नापने के लिए कोई डंडा या यंत्र भी होना चाहिए। जिसके होने से, उसे आत्म बल (self confidence) मिलता है और वह इससे अपने प्रबंधन की कला को स्वयं देख-देख कर, प्रति दिन बेहतर बन सकता है। नापने के विभिन्न यन्त्र ही आदर्श या स्टैण्डर्ड की भूमिका निभाते है। इसकी सहायता से तैराक सावधान रह, और निरंतर नया ज्ञान या कला सीखने के लिए उत्सुक रहता है। उसे ग्राहक का आर्डर लेते समय कभी डर नहीं लगता क्योंकि नापने वाले डंडे के प्रयोग से वह यह जान गया है कि किस तरह वह ग्राहक की आवश्यकताओं पर कितनी बार वह खरा उतर चुका है। संस्था में प्रबंधकीय अनुशासन का यह माप दंड ही आदर्श (या स्टैण्डर्ड) कह लाता है। यह नापने का यन्त्र, आदर्श या स्टैण्डर्ड, तैराक का स्थान कभी नहीं ले सकता अर्थात स्टैण्डर्ड पढ़ कर कोई प्रबंध करना नहीं सीख सकता। किंतु एक प्रबंधक के लिए स्टैण्डर्ड का प्रयोग, उसे अनुशासन (स्वयं पर शासन) का महत्व और आत्म बल का ज्ञान करा ही देता है। स्टैण्डर्ड को समय और परिस्थितिओं के अनुसार बदलते रहना चाहिए ताकि उसे अपनी छमता के आकलन में इसलिए ग़लतफ़हमी न हो कि उसने एक अनुपयोगी स्टैण्डर्ड का सहारा लिया था।

बाज़ार का क्या इतिहास है, बाज़ार कौन बनाते हैं? 11

1. युद्ध की मर्यादा पर आधारित मुक्त बाज़ार / युद्ध आवश्यक क्यों है? / कर्म को धर्मं युद्ध क्यों कहते हैं।

बाज़ार एक युद्ध क्षेत्र है। इसमें दो योद्धा अपनी अपनी बात को कायम रखने के लिए लड़ते है, और इस तरह दोनों अपने बराबरी के शत्रु का चुनाव कर, उनके बल, कला-कौशल और चरित्र की अच्छी तरह थाह लेते हैं। इस युद्ध में, दोनों पक्ष हार-जीत या मरने -मारने के बजाय समझौता (agreement) कर लेते हैं। युद्ध की समझौता में समाप्ति, ही व्यवसाय है। बाज़ार के सम्बन्ध का आधार कभी संकल्प (comittment) नहीं होता बल्कि वह एक समझौते (agreement) से जुड़ता है। बराबरी की परीक्षा ही युद्ध है, क्योंकि किसी भी समझौता के लिए पक्षों का बराबर होना जरूरी है, जिससे हाथ मिलाने के बाद कोई भी पक्ष हाथ को मरोड़ न सके। उदाहरण के लिए, भारत और अमेरिकी सरकारों में, परमाणु उर्जा के लिए समझौता एक भयानक युद्ध है। दोनों पक्षों का इस समझौते को निभा पाना ही व्यवसाय है। जब हम भी बाज़ार में कुछ खरीदने के लिए जाते हैं, तो हम किसी वस्तु का मूल्य १० रूपये लगाते हैं, किंतु बेचने वाला उसे २० रूपये में ही देना चाहता है। यही युद्ध है। बिक्रेता हमें अलग अलग वस्तु दिखाता है, और मूल्य के सही होने की जिद करता है। अंतत दोनों १५ रूपये पर समझौता कर लेते हैं, और यह तय होता है की दोनों उस समझौते का सहर्ष पालन करेंगे। इसलिए, बाज़ार में खरीदने वाले और बेचने वालों को सतर्क रहने की हमेशा जरूरत होती है, और कोई भी व्यावसायिक सम्बन्ध हमेशा के लिए बन पाना जरूरी नहीं है। असुरक्षा की भावना ही बाज़ार की शक्ति है। जो योद्धा नही हैं अर्थात चरित्र हीन या धोखे बाज़ हैं, या सतर्क नहीं होते, या दयालु या हिसाब किताब में असावधान होते हैं, वे सभी बाज़ार में मारे जाते हैं। आकर्षण के लिए छल, व्यवसायिक व्यूह नीति या तकनीकी गुप्त ज्ञान का युद्ध में इस्तेमाल, युद्ध की मर्यादा पर निर्भर है। मर्यादा की सीमा रेखा ही अपराधी और योद्धा को अलग करती है जबकि बुद्धि, धन या अस्त्र की शक्तियों दोनों के लिए बराबर हैं। बाज़ार के सिद्धांत इस लेख में आगे विस्तार में दिए गए हैं।

२। संगठनात्मक अलगाव की व्यवस्था (जातिप्रथा, राजनीतिक, व्यावसायिक या धार्मिक संगठन का रहस्य) । अलगाव वादी विशेषण से जुड़ कर अपने को धर्म युद्ध से बचाने की कला ।

समझौते के निर्वाह की समस्या युद्ध के इतिहास से जुड़े हैं। जातिप्रथा और बाज़ार, युद्ध में हुए समझौते के अलग अलग प्रयोग हैं। दुनिया में असंख्य उदाहरण हैं जब हारने वाले योद्धा ने समझौते में अपने पुत्री को जीतने वाले योद्धा को दी। इससे जातिगत समूह बन गए और शक्तियों को पारिवारिक धरोहर बना दिया गया। आज भी डाक्टर के पुत्र -पुत्री, व्यवसाइयों के पुत्र-पुत्री, अपराधियों के पुत्र-पुत्री स्व-जातीय विवाह द्वारा अपने शक्ति को परिवार के दायरे में ही रखना चाहते हैं। छुआछूत और जातीय अलगाव से लोगों में घृणा पैदा होती गई, और लोग संगठन बना प्रतिस्प्रधा से बचने लगे। इस तरह युद्ध की मर्यादा नष्ट हो गई, और उनके अपने अपने संकीर्ण विचारों से बाज़ार नहीं बन सका।

शत्रु भाव या प्रतिस्प्रधा के न होने पर, डाक्टर का बेटा डाक्टर, शासक का बेटा शासक, पंडित का बेटा पंडित, बिना किसी परीक्षा या योग्यता के कारण बनते गए। इस कारण, अलगाव, अज्ञान और अंधविश्वास बढ़ता ही गया और, भारत जैसे देश सदियों तक गुलाम बने रहे या रहेंगे। मुस्लिम और हिंदू धर्म से अलग नहीं हैं, बल्कि इतिहास से अलग हैं। मुस्लिम शासकों का इतिहास आज उस असमानता की कीमत चुका रहा है, जिसके कारण मुस्लिम आज भी समाज में उचित प्रतिष्टा न पा सके और विकास से अलग हो गए। आज के नए शासक कल के दुर्भिक्ष बनेंगे। उदाहरण के लिए, एक वकील या दरोगा या पोलिस कर्मचारी या सरकारी अधिकारी को घर किराये पर मिलना मुश्किल होता है। प्राइवेट बैंक उन्हें लोन भी नहीं देते। लोग यह सोचते हैं की ये लोग अपनी ऊंची पहुँच से घर पर कब्जा कर लेंगे या उनसे किराया लेना मुश्किल होगा। कानूनी वेश में गैर कानूनी लोग, कालांतर में समाज से बहिष्कृत कर दिए जाते हैं। यही अस्प्रश्यता का सिद्धांत है। जाति या संगठन के इतिहास के कारण एक अच्छा मुस्लिम, एक अच्छा वकील या पंडित या, एक अच्छा पोलिस कर्मचारी केवल इस लिए अभिशिप्त है, की वह कभी असमानता का प्रतीक रहा था या है। इन्हें अपना मान लेने में वक्त लगेगा। इसके विपरीत, गाँधी या राम या जीसस क्रिस्ट को जातीय, या राजनीतिक या धार्मिक संगठन से जोड़ने वाले अपराधी इन महापुरुषों को भी अस्प्रश्य बनाने और अलगाव पैदा करने का प्रयत्न करते हैं। संगठन किसी का नहीं होता इसका एक तात्कालिक उद्द्येश्य होता है, स्वभाव परिवर्तन इसका लक्ष्य नहीं है । एक पोलिस की लड़ते हुए मृत्यु होने पर समाज में इतनी चिंता नहीं होती जितनी एक सामान्य व्यक्ति की दुर्घटना से हुयी मृत्यु की । आतकवादी का नाम समाज में जाना जाता है, किंतु एक पोलिस कर्मचारी का नाम उसके मृत्यु के बाद उसका स्वामी (जो सरकारी व्यवस्था है) भी नहीं जानता।

धर्म (गुण-दोष 'डिफेक्ट' निवारण ) और वर्ण (शूद्र - वैश्य- क्षत्रिया - ब्राह्मण ) व्यवस्था का जाति या संगठन ( मुस्लिम, हिंदू, डाक्टर का बेटा डाक्टर, शासक का बेटा शासक, पंडित का बेटा पंडित) से, या जन्म - दाता या, जन्म समय या स्थान से, सम्बन्ध केवल एक संयोग ही हो सकता है। जन्म, या विवाह के सम्बन्ध या एक जातिप्रथा, शत्रु-भावः को समाप्त नही कर सकते, महाभारत का युद्ध एक ही परिवार की लड़ाई थी।

बाज़ार 'समझौता' की पद्धति से किस तरह काम करती है?

माँ के हाथ का बना खाना व्यवसाय क्यों नहीं है? होटल का खाना माँ के हाथ के खाने से क्यों भिन्न है? फ़िल्म में काम करने वाली अभिनेत्रियाँ किस तरह शारीरिक सुन्दरता को अस्त्र की तरह ले बाज़ार में युद्ध करती हैं। हमें यह जानना ही होगा कि व्यवसाय में शत्रु-भाव या प्रतिस्प्रधा कितना आवश्यक है। जहाँ शत्रु भावः नहीं होगा, व्यवसाय पनप ही नही सकता। जो लोग अपनी अच्छी कीमत पा रहे हैं वे ही सफल व्यवसायी हैं। व्यवसाय में समझौता की रक्षा के लिए दो पहरेदार नियुक्त हैं। यदि ये न हों तो, समझौता या बाज़ार फेल हो जायगा।

१। नाप (measurement)

२। कानून के भय से शक्ति-संतुलन (equality by means of laws and judiciary)

माँ के द्वारा दिए गए खाने में कोई नाप नहीं होता और न ही कोई कानून। इस लिए क्योंकि वहां शत्रु भावः नहीं होता। माँ और बच्चे के बीच सम्बन्ध कभी भी बाज़ार या व्यवसाय नहीं बना सकते। जबकि होटल में, हर खाने वाले वस्तु की नाप और मूल्य तय होती है। नाप के कम या ज्यादा होने की अवस्था में उनके बीच हुए समझौता का उल्लंघन हो जाता है। यदि खाने में कोई त्रुटी पायी गई है तो कानून का डर होता है, और दोषी को दंड भी मिलेगा। जहाँ कानून नहीं है या नाप तौल के नियम नहीं बने हैं, वहां बाज़ार या युद्ध सम्भव नहीं होते। अच्छा व्यवसायी उसे कहते हैं जो नाप तौल का माहिर है ,और उसे कानून पालन और न्याय प्रणाली का लाभ लेना आता है। यही लड़ाकू लोग, पेशेवर कहलाते हैं। अमेरिका में बाज़ार की व्यवस्था सफल सिर्फ़ इसलिए है की वहां लोग कानूनी लडाई में अभ्यस्त हैं और डरते नहीं। लोगों में लड़ने की यह प्रवृत्ति ही, अन्याय और अपराध से व्यवसाय की रक्षा करती है। भारत में इसका उल्टा है। यहाँ लोग अपराधियों से डरते हैं, और उनका सम्मान करते हैं। यह स्वाभाविक है कि भ्रष्ट व्यवस्था में व्यवसाय पर अपराधियों का ही नियत्रण होता है। सफल रहे व्यवसायिक संगठन का भारत में यह अनुभव रहा है कि कानून और नाप तौल की जानकारी रख कर ही बाज़ार में सुरक्षित रहा जा सकता है, और सरकारों या अन्य शक्तिशाली शत्रु से उनके बचाव का यही एक साधन है।

पैसा कमाने के लिए खतरा उठाने वालों का हर बाज़ार में स्वागत होता है। बाज़ार धर्म निरपेक्ष होता है जहाँ किसी को धर्म या अधर्म की परवाह नहीं होती। क्या करना समाज के लिए उचित है या और क्या अनुचित, यह बाज़ार का विषय नहीं है। लेकिन वह कार्य तात्कालिक व्यवस्था में, गैर-कानूनी नहीं होना चाहिये। बन्दूक या युद्ध के उपकरण या नशीले पदार्थ बनाना, वैश्या -वृत्ति इत्यादि कार्य हिंसा और चारित्रिक पतन को जन्म देते हैं किंतु गैर कानूनी न होने से यह एक बड़ा व्यवसाय है। कोई भी खेल, व्यवसाय या युद्ध जिसमें प्रतिस्प्रधा और शत्रु भावः हो, उसमें कानून का बीच में रहना जरूरी होता है। जहाँ कानून का प्रभाव नहीं होता है, वहां अपराध और व्यवसाय में फर्क करना मुश्किल होता है। यह भी ध्यान रहे की समानता या स्वतंत्रता के बिना व्यावसायिक प्रतिस्प्रधा या कोई भी युद्ध अनैतिक होता है। जो लोग कानून बनाते हों या हिसाब किताब रखते हों या जिन्हें दंड देने का अधिकार है उन्हें बाज़ार में कभी भी भाग नहीं लेना चाहिए, यह बेईमानी है। सरकारों, न्याय व्यवस्था और बैंकों को बाज़ार से अलग रखना चाहिए। लाचार और लालची लोगों का सम्बन्ध इस लिए ही भ्रष्ट होता है, और इस तरह के बाज़ार में लोगों का आत्म-बल गिरता है। लोग फ़िर बाज़ार से ही डरने लगते हैं।

युद्ध, लड़ाई या प्रतिस्प्रधा बुरी चीज नही है, किंतु वहां, किसी भी पक्ष को अनुचित लाभ या असमानता का लाभ नहीं मिलना चाहिए। समानता ( equilibrium) ही प्राकृतिक न्याय (natural justice) है जबकि नियंत्रण के सिद्धांत समानता के सिद्धांत से विपरीत है। कानून का पालन, सरकारों और संगठित व्यवस्था के लिए सिरदर्द होता है, जबकि वे कानून का दुरूपयोग दूसरों के नियंत्रण के लिए ही करना चाहते हैं। संगठन की शक्ति, समानता को सहन नहीं करती। भारत में कानून बनाने वाले, और बाज़ार के खेल में कानून के रेफरी (जज) भी नागरिकों के लिए बने कानून से स्वयं को बचाए रखना चाहते हैं। किसी भी प्रजातान्त्रिक देश का इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है?

कानून, नियंत्रण नहीं, बराबरी है ।
भारत के निवासी जो पत्थर, वृक्षों, संतों, नदियों की पूजा करते हैं और कठोर व्रत करना जिनकी परम्परा है, वे ही लोग साधारण से साधारण कानून का भी पालन नही करते और सरकारी तंत्र से घृणा करते हैं। जबकि, अन्य देशों में, आम आदमी कानून को इसलिए अपनाना चाहता है, जिससे उसकी स्वतंत्रता को संगठित गिरोहों से खतरा न हो, अर्थात, आम आदमी का कानून, किसी भी संगठन के शक्ति या उसके एकाधिकार के लिए उचित तोड़ बने। बाज़ार के लिए कानून जरूरी तभी है जब वह प्रतिस्प्रधा और समझौते के इस खेल में, सभी लोगों में बराबरी का भावः पैदा कर सके। और न्याय, स्वतंत्रता से जीने वाले आम आदमी के लिए, और संगठन के सुरक्षा में जीने वाले ख़ास आदमी, दोंनों के लिए निष्पक्ष रहे। इतिहासिक कारणों से भारत में सरकारों या संगठनो को कानून इसलिए चाहिए था जिससे गुलाम देश के निवासियों पर नियंत्रण रखा जा सके। जिस देश में कानून नियंत्रण के लिए बनाया जाता है, और कानून से संगठित, और असंगठित/स्वतंत्र दोनों में, बराबरी या स्वतंत्रता का भावः नही प्राप्त होता, स्वस्थ बाज़ार की सम्भावना नहीं हो सकती। यहाँ, कानून में इन दोनो की रूचि, अलग अलग कारणों से होती है। सरकारों या संगठन के सुरक्षा के प्रतीक, कानून के दुरूपयोग से लाभान्वित होते हैं, जबकि स्वतंत्र व्यक्ति कानून इसलिए अपनाना चाहता है, जिससे संगठित शक्तियों से या सरकारों से उसकी रक्षा हो सके, और वह उनसे डरे नहीं।
जिस देश में कानून होते हुए भी, आम आदमी को सरकारों से, या संगठित ख़ास लोगो, से डर लगता हो, उस देश में बाज़ार पनप ही नहीं सकता। वहां कभी भी प्रतिस्प्रधा पर आधारित बराबरी के समझौते नहीं हो सकते। भारत के तरह इन देशों में भी भष्टाचार, डर और नियंत्रण के लिए कानून का दुरूपयोग होता है। भारत में विकास एक कुख्यात शब्द है। सरकारें, विकास के लिए, किसानों या अन्य असहाय लोगों के जमीन या अधिकार जबरदस्ती ले लेती है, और उससे आम आदमी और संगठन की शक्तियों में फर्क का पता चलता है। जो कानून बराबरी नही दे सकती, वह विकास किस काम का ? यही अनर्थ का कानून है, और भारतीय अन्धविश्वासी, अति संवेदनशील और स्वभाव से अहिंसक और आज्ञापालक होते हुए भी साधारण से साधारण कानून का पालन नहीं करते और, सरकारों से घृणा करते हैं।
भारत में कानून की दुर्गति और अश्रद्धा किसी खोज का विषय नहीं है। कोई बिरला व्यक्ति ही हो सकता है जिसने सरकारी भ्रष्टाचार की स्वाद न लिया हो। बिजली, पानी, मकान, सीवर लाइन, रोड, टेलेफोन, सभी कार्यों में सरकारी नियंत्रण है। किंतु सरकारी या कोई भी संगठित भ्रष्टाचार, जो कानून से कम नही हो सका, वह प्रतिस्प्रधा से या मुक्त बाज़ार की व्यवस्था से कम हो रहा है। आज भारत, बाज़ार के महत्व और व्यक्ति की समानता और स्वतंत्रता की विकास में अभिव्यक्ति को समझ रहा है। प्रतिस्प्रधा से बने बाज़ार में बराबरी का अनुभव लेना, न्यायालय में जाने से बेहतर है। बाज़ार के न्याय में, हारने वाले को ज्ञान मिलता है, सजा नही; और जीतने वाले को प्रोत्साहन। कानून की शक्ति आम आदमी के पास होनी चाहिए, और बाज़ार में उसके द्वारा अच्छे बुरे की चुनाव की स्वतंत्रता ही न्याय है। यही कारण है नैतिक बल, कला, विज्ञानं और खेल में भारत की गिनती होने लगी है। युद्ध का अपना ही कानून होता है, और श्रेष्ठ कानून वह है जो बाज़ार या युद्ध में सभी के लिए समान हो। यही बाज़ार की आधार है, जिस से वास्तविक विकास सम्भव है। कानून, सरकार या किसी भी शक्तिशाली संगठन का अस्त्र या नियंत्रण का साधन नही होता।
जिन देशों में आम आदमी कानून को अपनाने से स्वतंत्र और बराबरी की अनुभव करता हो, और उसे डर न लगता हो, वहां, मुक्त बाज़ार से देश का विकास होता है। अमेरिका इसका एक उदाहरण है। भारत के लोग भारत से भाग कर अमेरिका जा कर वहां, सफलता प्राप्त करते हैं। इन दोनों देशों में कानून की परिभाषाएं अलग अलग हैं। भारत में कानून एक नियंत्रण का साधन है, जबकि अमेरिका में यह लोगो में बराबरी के भावः लाने का माध्यम है।

बाजार के खतरे क्या हैं?

बाज़ार खतरे का खेल है।आख़िर यह युद्ध ही तो है? देखने में यह जितना आकर्षक है उसे बनाने में लगी पीडा भी उतनी अधिक है। गणित के द्वारा बांटे गए हर मनुष्य को अपने अपने एकाधिकार की रक्षा के लिए सतर्क और स्वार्थी रहना ही है, और उसे अपने ही बुद्धि के द्वारा बनायी गई असुरक्षा से बचने के लिए प्रतिस्प्रधा और शत्रुता में जीने का अभ्यस्त होना पड़ेगा। बाज़ार में लोग आत्मनिर्भर नहीं रह सकते, इसलिए उनके पास जो भी है, उसे बचाए रखने और, सुरक्षा के लिए संग्रह की आवश्यकता होती है। जिनके पास पैसे नहीं होते, उनके लिए बाज़ार मरुस्थल है। एक आदमी जंगल और पहाडों में जिन्दा रह सकता है, किंतु बिना पैसे या बेचने-खरीदने की योग्यता के, वह शहर या बाज़ार में नहीं रह सकता। बाज़ार में रहने वाले धीरे धीरे असुरक्षा के इस प्रभाव से क्रूर और असंवेदनशील बन जाते हैं। उनका अनुशासित और आकर्षक व्यवहार, दया, रक्षा, चापलूसी, और सेवा का प्रदर्शन भी घातक अस्त्र ही होते हैं। जबकि परिवार, समाज और प्रकृति की व्यवस्था बाज़ार से उलटी होती है क्योंकि वहां शत्रुता, प्रतिस्प्रधा, न्याय और माप तौल की जरूरत नहीं होती। शासन और बाज़ार से इन तीनो व्यवस्थाओं (प्रकृति, परिवार, समाज) को हमेशा खतरा होता है। भारत में किसानो का आत्महत्या करना इसका प्रमाण है। किसानो को प्रकृति (पेड़ पौधों और पशुओं) के साथ रहने से उनमें शत्रु भावः पैदा ही नहीं होता और वे अपने श्रम का मूल्य नहीं लगा सकते। यदि उनसे कुछ मांगे भी तो वे उसे मुफ्त में दे देंगे और लिखने पढने में उनका विश्वास नहीं होता; किंतु, बाज़ार में यह सब नहीं होता और वे बाज़ार का भाषा में गरीब कहलाते हैं। वे धन का उपयोग करना सीख नहीं सकते। जब बाज़ार की व्यवस्था उनके प्राकृतिक स्वभाव को नष्ट कर देती है, तो वे लाचार हो कर आत्महत्या कर लेते हैं। प्रकृति भी आत्म हत्या कर लेती है। उसका भी स्वभाव पहिले जैसा नहीं रहा, और भयानक त्रासदी आने वाली है। परिवार और समाज में भी विकृति आ गई हैं।

व्यवसायी चरित्र की श्रेष्ठता

व्यवसाय युद्ध का ही परिष्कृत या शुद्ध रूप है। युद्ध में लड़ने वाले प्रायः मूर्ख किन्तु शक्तिशाली होते हैं। जो जीता वो ही सिकंदर। आज भी, दुनिया में बिन लादेन का नाम अमेरिका के अंहकार को नष्ट करने के कारण ही जाना जाता ही। युद्ध का कारण अंहकार होता है। शासक या अपराधी या योद्धा अपने अपने अंहकार की रक्षा के लिए ही लड़ते हैं। उनका लक्ष्य हार-जीत या मरना-मारना होता है, जिससे उन्हें स्वयं की पहिचान प्राप्त हो। प्रायः, मरने के बाद ही लोग उन्हें याद करते हैं। इन्हें, अपने स्वभाव की ठीक समझ नहीं होती। पुराने जमाने में, योद्धाओं या अपराधियों की उनके शक्ति के कारण बहुत इज्ज़त होती थी। वे ही शासक कहलाते थे। किन्तु, आज युद्ध के शक्तिशाली अस्त्रों का बाज़ार, सुन्दरता के बाज़ार की तुलना में बहुत छोटा हो गया है। क्या आपने सोचा है कि दुनिया के सभी देशों में, बुद्धिमान और युवा लोग क्यों सेना, रक्षा, अपराध, सरकारी पदों, या अन्य शक्ति-प्रयोग के कार्यों में नहीं जाना चाहते ? और उन्हें व्यवसाय या सृजन के कार्य क्यों आकर्षित करते हैं। विकास का यही दर्शन यह सिद्ध करता ही कि कालांतर में शक्ति का प्रभाव किस तरह घटता जा रहा है, और कैसे लोग समझदार और निर्रहंकार होना अधिक पसंद कर रहे हैं। भारत में सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति के चुनाव में कलाकार, साहित्य, व्यवसाय या खेल में प्रसिद्द लोग सबसे आगे, और अंहकार से शक्तिशाली बने लोग जैसे शासक, वकील, या सरकारी व्यक्ति या राजनीतिक लोग सबसे पीछे रहते हैं। चरित्र में हो रहे इस परिवर्तन को ही विकास कहते हैं। किसी व्यक्ति या राष्ट्र का शक्तिशाली बनना उसका पतन निश्चित करता है।

क्वालिटी क्या है, किस तरह वह बाज़ार के खतरों को कम करने में सहायक है?

क्वालिटी, बाज़ार में आशा का किरण है। यह अंधों की लाठी है। बाज़ार को निरापद बनाने का ज्ञान ही क्वालिटी है। इसके रहस्य को ठीक से समझे। यह शत्रु भावः में रह कर परस्पर विश्वास करने की कठिन साधना है। हर एक का अपने अपने समझौते का निष्ठां से पालन ही इस की नियति है, जिसमें सबका भला है। शहर में बच्चे यह नहीं जानते की दूध गाय से प्राप्त होता है। वे जानते हैं की दूध एक मशीन से पैसा डालने पर निकलता है। दूध का मशीन जिसके पास है वह दूध को ट्रक वाले से प्राप्त करता है। ट्रक वाले दूध को एक पस्तुरिजेशन प्लांट से लेते हैं। वहां वह दूध हर रोज ग्रामीण इलाकों में बने संग्रह स्थान से आता है। संग्रह स्थान पर, दूध किसान लाते हैं। किसान, वह दूध गाय से प्राप्त करता है। बाज़ार का यह जाल अंधों का खेल है। यहाँ हर एक व्यक्ति की एक सीमा है और उसे उससे आगे नहीं दीखता। न चाहते हुए भी हर एक को समझौते का पालन करना पड़ता है। इसमें ही सब की भलाई है। यदि एक भी कड़ी टूटेगी तो बाज़ार में बच्चों को रोज दूध नहीं मिल सकता। बाज़ार एक महा जाल है इसमें करोड़ों लोग एक दूसरे पर अपने अपने समझौतों से जुड़े होते हैं और यह बाज़ार, शत्रुता से भरा होने पर भी सुरक्षित रहता है। आज जो भी विकास के कार्य होते हैं उनके पीछे करोड़ों लोग अपनी अपनी अलग अलग क्षमता से जुड़े होते हैं, और हर एक का अपना कार्य एक दूसरे के प्रति ठीक तरह से करना ही, क्वालिटी है। बिना खून खराबे के, शत्रु या प्रतिस्प्रधा करते हुए, समझौते के पालन में निपुण व्यक्ति, हर कार्य को खेल की भावना, जवाबदेही और लक्ष्य बना कर करते हैं। यही खेल की व्यवस्था ही व्यवसाय का आदर्श है।

क्वालिटी मनेजमेंट सिस्टम के अपनाने वाली संस्था के क्या लक्षण वर्णित है?

बाज़ार में क्वालिटी का अर्थ एक दूसरे से हुए समझौते का पालन करने में सफलता की योग्यता है। क्वालिटी मनेजमेंट सिस्टम के अपनाने का प्रमाण यह है की संस्था यह दिखा सके की वह ग्राहक से हुए समझौते और कानूनी नियंत्रण के नियमित पालन में कितना समर्थ है। इसके अतिरिक्त वह संस्था यह भी दिखाए की क्या वह ग्राहक को संतुष्ट करने के प्रति सचेत है, और उसकी यह क्षमता उसके कार्य विधि द्वारा हमेशा बनायी रखी जा रही है। यदि कार्य करने में कोई विधि नहीं अपनाई गई है तो कार्य की सफलता की हमेशा बने रहने की गारंटी और गलतियों से सीख लेने का अवसर नहीं होगा।

संगठन की रचना का उद्देश्य क्या है?

संगठन की रचना किसी ऊंचे उद्देश्य के लिए ही की जाती है। बाज़ार में संगठन का बनना यह सूचित करता है की कोई वह कार्य होने वाला है जिसे अकेले नहीं किया जा सकता। जो कार्य अकेले किया जाना सम्भव है वह लक्ष्य या तो छोटा है जिसे अन्य लोगों को बताने से झगडा ही होगा क्योंकि उसे हर व्यक्ति अकेले ही प्राप्त करना चाहेगा। लेकिन जो कार्य अकेले असंभव है, उसमें लोग मिल कर ही कार्य करते हैं, और ऊंचे लक्ष्य को प्राप्त करने की मिल कर iचेष्टा करते हैं। छोटे संगठन अपने छोटे उद्देश्य के कारण ही बिखर जाते हैं और लोग लबे समय तक साथ नहीं देते। ऊंचा लक्ष्य ही संगठन को बचाए रख सकता है। दुष्ट बच्चों को सँभालने का यही एक तरीका है। अतः आर्थिक विकास के कार्य, बाज़ार की एक मजबूरी भी है। यदि यह न होगा तो लोग बिना वजह झगडा करने लगेंगे और उन्हें रोकना मुश्किल हो जायगा। अमेरिका और रूस जैसे देश नित नए लक्ष्य की खोज इसलिए ही करते हैं।

व्यवस्था और गुण का सम्बन्ध Quality + Management

दुष्ट या अशांत प्रकृति के व्यक्ति, जबतक संगठन में रह कर और ऊंचे लक्ष्य के प्राप्ति में लगे रहेंगे तभी काबू में रहते हैं। वे शांत, अकेले और छोटे छोटे कार्य कर कभी खुश नहीं रह सकते। गाँधी या आइंस्टाइन ने वह छोटे छोटे काम किए, जो सभी के लिए आसन, अकेले किया जाने वाला, और अनुकर्णीय हैं; जबकि सिकंदर या अन्य योद्धाओं के साहसिक कार्य, केवल संगठित हो कर, और ऊंचे लक्ष्य बना कर ही, किया जा सकता है। छोटे लक्ष्य और असंगठित रहने से, दुष्ट व्यक्ति आपस में ही लड़ते रहते हैं। इसलिए उनके लिए ऊंचे लक्ष्य और संगठन की बहुत जरूरत होती है। केमिस्ट्री के ज्ञाता इस रहस्य को तत्त्व से जानते हैं। सोडियम अकेले शांत नहीं रहते। क्लोरीन भी अकेले नहीं रह सकती। लेकिन सोडियम और क्लोरीन मिल नमक बन कर प्रकृति में मुक्त होकर रह सकते हैं। नमक, सोडियम और क्लोरिन का संगठन है। जबकि गाँधी या आइंस्टाइन क्रियाशील नहीं हैं। सोना कहीं भी अकेले रह सकता है, जिसे संगठन की आवश्यकता कभी नहीं होती। सोना अकेले रहते हुए भी अति सवेदनशील होता है जिसका उपयोग संचार उपकरणों में किया जाता है। इसके विपरीत, सोडियम और क्लोरीन अति सक्रिय तत्त्व हैं, किंतु उनमें संवेदनशीलता नहीं होती, और सुरक्षा के लिए वे संगठित बन कर ही रहते हैं। व्यक्तियों की यही सक्रियता, प्रतिक्रिया या असहनशीलता उनका गुण है। ज्ञात रहे, बिन लादेन दुनिया में संगठन या व्यवस्था का महान पंडित है, क्योंकि वह सक्रिय और असहनशील है। पूर्व में दुष्ट रहे, या दुष्टों के इतिहास (पुराण) पढ़े हुए और शंकालु व्यक्ति (जैसे वकील, आडिटर) ही अर्थ या न्याय या संगठन व्यवस्था की सही परीक्षा कर सकते हैं।

व्यवस्था या मनेजमेंट का विचार, दुष्ट या सोडियम सरीखे (गुण के कारण) हुए सक्रिय व्यक्तियों को संगठित करके, उनके दुष्प्रभाव को कम करके उनकी शक्तियों को ऊंचे लक्ष्य की प्राप्ति में लगाना है। सोना निर्गुण है; इसलिए व्यवस्था, मनेजमेंट या संगठन उसका विषय कभी नहीं है। व्यवस्था, मैनेजमेंट या संगठन के प्रयोग से मनुष्यों के सुधार के लिए अशैतानीकरण या devilization की क्रिया है। जबकि सभ्यता (या सिविलिजेशन) सदैव प्राकृतिक होता है, जिसे व्यवस्था या बल के द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता। अर्थात जहाँ अव्- गुण (short of quality) है वहां ही व्यवस्था (management) है।

गुण और व्यवस्था और शास्त्र

असुर, दुष्ट या शैतान स्वभाव को बल या चालाकी (=गोपनीयता + भय+ लालच+ तुलनात्मकता) के द्वारा नियंत्रित कर, उन्हें सुर या संगीत की तरह क्रियाशील बना देना ही व्यवस्था का लक्ष्य है। व्यवस्था, अनियंत्रित के नियंत्रण में लाने को कहते हैं। Management is a journey from chaos to order. जिस तरह पानी के तेज और अनियंत्रित बहाव को रोक कर, उसे पाइप में बहा कर, टरबाइन द्वारा उसकी शक्ति को उससे अलग कर बिजली बना दी जाती है, और पानी के अशक्तिकरण से उसके शांत स्वभाव को पुनः प्राप्त किया जाता है, इस जल-विद्युत् पावर-प्लांट के सिद्धांत को ही व्यवस्था कहते हैं। गतिशील पानी की तरह ही, वर्ण-संकर अर्थात मिश्रित गुण वाले मनुष्य भी, असुर ( अनिश्चित स्वभाव वाला) या दुष्ट होते हैं। और, जब उसका गुण दोष, या वर्ण संकर (या मिश्रित गुण) प्रकृति अलग- अलग हो जाती है, तब ही मनुष्य को उसके सही स्वभाव की जानकारी मिलती है। व्यवस्था से बने कठोर कार्य और कष्ट के बाद ही मनुष्य को उसकी पहचान हो पाती है। यही गुण दोष पर आश्रित व्यवस्था अशैतानिकरण या दोष निवारण (devilization) पद्धति है। क्वालिटी मैनेजमेंट का एक मात्र लक्ष्य है, दोष निवारण। दोष या डिफेक्ट के दूर हो जाने से मनुष्य में नियंत्रण आ जाता है, और उसका कार्य सुर ( नियंत्रित गति जैसे संगीत) हो जाता है। अर्थात, वह भरोसे लायक या विश्वास करने योग्य (quality assured) हो जाता है। जो भरोसे के लायक नहीं होते, या अनियंत्रित होते हैं, उन्हें ही असुर (या जो सुर में न हो) कहते हैं।

गुण-दोष निवारण (क्वालिटी -गुण, मैनेजमेंट - दोष निवारण व्यवस्था ) को ही 'धर्म' कहते हैं। सिस्टम को संस्कृत में 'शास्त्र' कहते है। शास्त्र, व्यवस्था या संगठन का अंग नहीं है जबकि व्यवस्था, शास्त्र के बिन न चल सकती है, न रुक सकती है। शास्त्र या सिस्टम या सनातन ज्ञान सदैव बिना बदले, एक सा ही रहता रहता है, और समय के अनुसार व्यवस्था या संगठन बनते रहते हैं। समाज या देश अलग अलग हो सकते हैं, जबकि समाज शास्त्र (social system) का ज्ञान एक है। सिस्टम और शास्त्र एक शब्द है। उदाहरण के लिए, फिसिक्स या फिसिकल सिस्टम ही भौतिक शास्त्र, इकोनोमिक्स या इकानामिक सिस्टम को अर्थ शास्त्र और सोलर सिस्टम को ज्योतिष शास्त्र कहते है। क्वालिटी मैनेजमेंट सिस्टम का संस्कृत या हिन्दी में अनुवाद है, गुण (क्वालिटी) - दोष निवारण व्यवस्था (मैनेजमेंट) - शास्त्र (सिस्टम)। गुण दोष निवारण व्यवस्था को धर्म कहते है, इस लिए यह धर्म शास्त्र भी कहलाता है।

क्वालिटी जितनी ऊंची होगी, मैनेजमेंट या व्यवस्था की जरूरत उतनी ही कम होती है। क्वालिटी जितनी ख़राब होगी, व्यवस्था या मैनेजमेंट उतनी ही अधिक होनी चाहिए। साथ ही, यदि व्यवस्था या मैनेजमेंट न हो, तो भी क्वालिटी खराब हो सकती है। कम से कम व्यवस्था या मैनेजमेंट के द्वारा, किस तरह क्वालिटी को सर्वोच्च बनाये रखा जा सकता है। सही दिशा में यह सोच ही को सिस्टम या शास्त्र कहते हैं। शास्त्र या सिस्टम यह सिखाता है कि भरोसा इस तरह हो, जो बिना कंट्रोल के सम्भव हो।

जापान में क्वालिटी मैनेजमेंट सिस्टम को धर्म या आराधना की क्रिया मानी जाती है, इस लिए वहां डिफेक्ट, या दोष या प्रदूषण या अत्याचार, शंका/अविश्वास आदि, व्यवसाय के अंग नहीं होते। जबकि अमेरिका या योरोप में व्यवसाय, युद्ध की परिणति थी; इस लिए, जापान के विपरीत, वहां, व्यवसाय की व्यवस्था में अत्याचार, प्रदूषण, भय, लालच, तुलना और शंका का अधिक प्रयोग होता है। जापान में वकील या न्याय या सरकार या इंस्पेक्टर की उतनी जरूरत नहीं होती जितना अमेरिका में है। जापान में व्यवस्था का सिद्धांत, अमेरिका से उल्टा है। जापान की तरह, ग्रामीण भारत में भी हर कार्य जैसे घर बनाना, खेत में बीज डालने, हल चलाने, फसल काटने, जन्म, विवाह के कार्य को धार्मिक उत्सव कहा जाता है, और ये सारे कार्य संगीत और प्रसन्नता से किए जाते थे। यही धर्म है। लेकिन, सिद्धांत के बदलने से, अब यह परम्परा समाप्त हो रही है, और लोग ठेके पर, हिसाब-किताब और हिंसा या पैसे के बल पर काम करवाते हैं, जिससे ये धार्मिक उत्सव के कार्य न रह कर, अत्याचार, युद्ध या जल्दी बाजी के प्रतीक और दोषपूर्ण होते जा रहे हैं। इस कारण अब दोष, प्रदुषण और अपराध के बढ़ने से, क्वालिटी कंट्रोल के लिए, भारत में भी उलटी सोच के पंडित जैसे, वकील, इंस्पेक्टर, जज, पोलिस, लेखाकार, और आडिटर की मांग बढ़ रही है। प्रकृति के विरुद्ध जाने से श्रम बढ़ता है; और उलटी सोच या सतर्कता के कार्यों में, बुद्धि को सृजनात्मक कार्य की तुलना में श्रम अधिक करना पड़ता है। मोहनदास गाँधी भी इंग्लॅण्ड से कानून की शिक्षा पायी थी, और वे अपराधियों और अंग्रेज सरकार का बचाव करते हुए, पैसों में लोट रहे होते, लेकिन उन्होंने न केवल अपने दिमाग के सोच के दिशा बदली बल्कि आदिवासी भारतीयों की वेश भूषा भी अपना ली। मन के इस विचित्र परिवर्तन ने उन्हें महात्मा बना दिया। इस सीधी सोच से, उनका श्रम (प्रकृति के विरुद्ध सोच) समाप्त हो गया, और वे आश्रम अर्थात जहाँ श्रम न हो, में रहने लगे। उनके निवास को आज भी साबरमती आश्रम कहते हैं।

व्यक्ति के चारित्रिक विकास और संगठनात्मक व्यवस्था में क्या सम्बन्ध है ?

व्यवस्था ही वह जल विद्युत् मशीन है जिस से पानी के अनियंत्रित बल को और उसके शांत स्वभाव को अलग अलग किया जाता है। संगठन ही वह प्रयोगशाला या चिकित्सालय है जिसमें व्यक्ति एक विशेष युद्ध या सर्जरी करवा कर, अपने चरित्र में सुधार ला सकता है। ज्ञान से प्राप्त निर्भयता और संवेदनशील होना चरित्र परिवर्तन का लक्ष्य है। इस चिकित्सालय से बाहर आकर मनुष्य को मनुष्यता का बोध होता है। विकास की इस क्रिया को निम्नलिखित उदाहरण से समझा जा सकता है। किसी संगठन में, व्यवस्था की शुरू में बहुत जरूरत होती है, और वह बहुत मजबूत रहती है; किंतु कालांतर में, चारित्रिक दुर्बलता के कम होने पर, वह स्वतः समाप्त हो जाती है।

१) शुद्र चरित्र: छोटी बुद्धि वाला, आतंकवादी या योद्धा या शासक जो अंहकार, शत्रु भाव, असुरक्षा और भय से संचालित है, और हार -जीत जिसका लक्ष्य है, जो अपनी प्रकृति को नही जान सकता और अपनी ही महत्वाकांक्षा का दास बन कर कठिन श्रम के लिए मजबूर है ( बिन लादेन) ;

२) वैश्य चरित्र: व्यवसायी, उद्योग, तकनीक या मनोरंजन क्षेत्र के प्राणी जिसका अंहकार, देने -लेने, नाप तौल, और कानून अपनाने से कम हो रहा है, और जो रचनात्मक प्रतिस्प्रधा, प्रदर्शन, नए अनुभव, और स्वार्थ से संचालित है और लाभ-हानि जिसका लक्ष्य है ( बिल गेट्स) ;

३) क्षात्र चरित्र: वैज्ञानिक, दार्शनिक, साहित्यकार, जिसमें कलाकार, लेखक या समाजसेवक भी शामिल हो सकते हैं, और जो बिना किसी संगठन के, अपनी मूल प्रकृति (स्वभाव) को जान कर , बिना श्रम किए, केवल स्वान्तः सुखाय कार्य करता है, और किसी अंहकार, शत्रु भाव व् संगठन से अलग है और धर्म-अधर्म (सही-ग़लत) जिसका लक्ष्य है (गाँधी, टेरेसा, आइंस्टाइन );

४) निर्गुण ब्राह्मण जो सत्य के लक्ष्य को प्राप्त है, और सत्य -असत्य से परिचित है (कृष्ण, राम, बुद्ध)।

स्वभाव में स्थिर मनुष्य (सोने की तरह) प्रतिक्रियाहीन और संवेदनशील होते हैं, और उनके कार्य सभ्यता (civilization) कहलाते हैं। यहाँ बल, भय, कानून, न्याय या दंड नहीं होते। सभ्यता का लक्ष्य मनुष्य की स्वतंत्रता या मोक्ष है। इसे ही विकास या (development) कहते हैं। Development is a journey from order to liberation. विकास की क्रिया मनुष्य के चिंतन से और ध्यान से प्राप्त होती है, व्यवस्था या संगठन से नहीं। स्वभाव में स्थिर मनुष्य को संगठन की जरूरत नहीं होती, न ही उनके लिए कोई व्यवस्था ही होती है। इन्हे कुल कहते है। कुल का उदाहरण है .... पक्षी के झुंड, या तीर्थ यात्री, जो एक दिशा में जाते हैं और किसी का किसी से गोपनीयता या प्रतिस्प्रधा या भय नहीं होता, किंतु वे एक दूसरे पर निर्भर भी नहीं होते। इसको समाज भी कहते हैं, क्योंकि सभी का लक्ष्य एक होने पर भी, प्रत्येक व्यक्ति ज्ञान से अंहकार-रहित, समान और आत्मनिर्भर बने रहते हैं। भारत में आदिवासी जीवन, या विचारक जैसे कबीर, गाँधी, तुलसीदास, गुरु नानक, ज्ञान के निस्वार्थ प्रसार से, कुलपति या कुल-गुरु कहलाये; और उनके चले पंथ (मार्ग) पर लाखों लोग आदिकाल से निर्भर हैं। यह अध्यात्म का मार्ग है। कुल या समाज, एक खेत की तरह होता है, क्योंकि व्यक्तियों के मन में गुरु का डाला गया ज्ञान का बीज, कभी नष्ट नही होता, और उनकी बुद्धि उचित समय पर उस ज्ञान को संसार में कर्म के रूप में बढ़ते हुए देखती है। जबकि अज्ञान का बीज, मन के उस खेत में नष्ट हो जाते है, या उनके कार्य सीमित काल तक लाभ पहुंचाते हैं, और कुल नहीं बना पाते। कुल का, पारिवारिक या जन्म देने वाले व्यक्तियों से सम्बन्ध होना आवश्यक भी नहीं है। ज्ञान की खोज में लगे लोगों की संस्था को आज भी व्यवसाय या दुष्टों का संगठन नही कहते, उसे ऋषि-कुल, आश्रम, या विश्व०विद्यालय कहते हैं, और उसका नेता कुलपति कहलाता है। छात्र जिसे छत्रिय धर्म का ज्ञान होना चाहिए; उनका कार्य, ज्ञान की यात्रा या तीर्थ-यात्रा द्वारा तीनो गुण से या विकारों से मुक्त होना (अर्थात 'त्रि' गुण का 'क्षय') है। क्षत्रिय, जब तीनो गुण या विकारों से मुक्त हो जाता है, तब उसका वर्ण निर्गुण, निर्विकारी या ब्राह्मण हो जाता है।

भारत में राक्षसों का विशेष सम्मान होता रहा है जबकि पतित राक्षसों के वध की स्मृति में उत्सव होते हैं। राक्षस का जीवन व्यक्तिगत त्याग और संगठन के जिम्मेवारी की कठिन परीक्षा है। राक्षस, संस्कृत भाषा का शब्द है, यह, दरअसल, रक्षा करने वाले (जैसे पोलिस, जज, मिलिटरी, राजनेता, योद्धा या वर्दी में छिपे शक्ति-तंत्र ) को कहते हैं। इनमें मिश्रित गुण होते हैं, इसलिए ये, स्वयम असुर (भरोसे के लायक न) होते हुए भी, व्यवस्था को शत्रु-भाव, युद्ध या विरोधियों को तर्क से हराने के बाद, सतर्क रह कर चलाते हैं। न्याय, शक्ति, छल, धन के माध्यम से जितना सम्भव हो सकता है, संगठन बना कर रक्षा और व्यवसाय के ऊंचे लक्ष्य के कार्य में लोगों को लगाए रखने से शान्ति बनी रहती है। राक्षसों की अप्राकृतिक शक्ति से ही उद्योग और व्यवसाय सफल होते हैं तथा, संगठन और व्यवस्था के कमजोर होते ही, उद्योग और व्यवसाय समाप्त हो जाता है। क्षत्रिय और राक्षस योद्धा शत्रु नहीं होते, किंतु राक्षस, ( शत्रु भाव से संचालित हुए) किसी भी संगठन का स्वामी, हमेशा नहीं रह सकता और कभी न कभी अपनों के हाथ ही मारा जाता है। इसलिए राक्षस को कभी भी अपने संगठन, या उसके बल, या व्यवस्था के सिद्धांतों का गर्व नहीं करना चाहिए। भारत में, मनुष्यों के आदर्श या मर्यादा पुरूष को राजा कहते हैं। जो व्यक्ति अनुकर्णीय होता है, और जिस से लोग स्वेच्छा से प्रेरित हो जाते हैं, उसे राजा कहते हैं। राम, या गाँधी या कबीर कभी शासक होने के कारण नहीं जाने गए, बल्कि उनका व्यक्तित्व दुनिया के लिए एक आदर्श बन गया। इनका अनुकरण करने में कोई हानि नहीं है। हर समाज या कुल में राजा एक मार्ग दर्शक होता है। जबकि राक्षस, जैसे शासक, पोलिस या जज या अधिकारी या योद्धा जो संगठन की शक्ति के प्रतीक हैं, उनका आचरण कभी भी अनुकर्णीय नहीं होता। एक साधारण मनुष्य के लिए अपराधी बनने की स्वतंत्रता नहीं है, इसी तरह यदि वह स्वयं को जज मान कर न्याय के कार्य करे, या पोलिस तरह अस्त्र के प्रयोग से रक्षा या युद्ध करे, तो भी यह गैर कानूनी कहलाता है, और यह दंडनीय हो सकता है। संगठन में कार्य करना व्यवसाय है, इस लिए यहाँ स्वेच्छा भी नहीं होती, और भरोसा या अनुकरण करना भी उचित नहीं, और शत्रुओं से अपनी रक्षा करते हुए, नीति से ही लक्ष्य की प्राप्ति की जानी चाहिए।

व्यवस्था के लिए भूख (डिमांड) की अनिवार्यता।

भारत का ज्ञान दुनिया भर के लिए समस्या है। यहाँ प्रकृति में रचे बसे लोगों को व्यवस्था की जरूरत ही नहीं है। भूख के कारण ही लोग युद्ध या व्यवसाय करते हैं। जैसे जैसे भूख (demand) बढती है, लोंग अशांत होने लगते हैं। फलस्वरूप असुरक्षा, अपराध और बीमारी बढती है। भूख, अपराध और बीमारी के द्वारा व्यवस्था के सिद्धांत बनते है, जिस पर सरकार, चिकित्सा, न्याय और रक्षा के साधन निर्भर हैं। व्यवस्था चलाने वाले के हित में यही है की वे 'स्वभाव' (स्व+ भाव) को नष्ट करें और 'भाव' (शत्रुता, मूल्य, या दया ) का प्रयोग सीखें। भारत कभी एक विकसित सभ्यता रहा था किंतु दुर्भाग्य से उन मनुष्यों में विकास की परिभाषा का ज्ञान न रहा। अब उन्हें यह रास्ता पुनः सीखने के लिए अविकसित बनने के लिए एक नई व्यवस्था पर निर्भर होना पड़ रहा है। अविकसित होने की यह क्रिया ही शैतानीकरण या evilization है। इस क्रिया से शांत मनुष्य को अशांत और मिश्रित स्वभाव में बनने के लिए प्रेरित किया जाता है, और फ़िर उन्हें बल पूर्वक व्यवस्था से पुनः नियंत्रित कर, और फ़िर विकास के लिए पुनः लाया जाएगा। अविकसित (evilization) - विकासशील (devilization)- विकसित (civilization) का चक्र जान लेने पर ही इस चक्रवुय्ह से निकला जा सकता है। यही दिशा ज्ञान, शास्त्र (system) कहलाता है जिसके द्वारा मनुष्य का स्वभाव पतित (गिरने लायक ) नहीं होता।

Friday, August 22, 2008

आपातकालीन प्रबंधन

आपातकालीन तैयारी, उसका आकलन और उपलब्धि

१। आपातकालीन प्रबंधन

  1. क्या प्रबंध ने आपत्काल की कोई परिभाषा बना रखी है? अर्थात, व्यवसाय की कार्य विधि से किस तरह की आपत्काल की सम्भावना (जैसे प्रदूषण का अनियंत्रित होना, या ज्ञात प्राकृतिक आपदा या किसी साधन की कमी से आपातकाल की उत्पत्ति) हो सकती है या पूर्व में हो भी चुकी है, जिसके पहिचान और रोक थाम की व्यवस्था की जानी है?
  2. और, उन संभावित आपत्कालों का प्रभाव कहाँ तक जा सकता है और वे किस तरह दुर्घटना का कारण हुए या हो सकते है? अर्थात, इसका दुष्प्रभाव कितना गंभीर (significant) है ? यदि प्रबंध ने इस विषय में हुई चर्चा को लिखित में रखा है, तो उसका सन्दर्भ?
  3. उपरोक्त सन्दर्भ में, आपातकालीन तैयारी हेतु, प्रबंध ने क्या कोई समिति बनाई है जिसका उद्देश्य यह हो कि वह इस विषय में सतर्कता से सोच विचार करे, निर्णय ले और कार्यान्व्यन की जिम्मेवारी ले ? यदि हाँ, तो क्या उस समिति के मार्ग दर्शन हेतु, प्रबंध ने आपातकालीन सुरक्षा के मान दंड और सामयिक लक्ष्य निश्चित कर लिए हैं? यदि यह निर्णय लिखित में उपलब्ध है, तो उसका सन्दर्भ?
  4. क्या दुर्घटना के रिकार्ड के लिए फक्ट्री एक्ट द्वारा निश्चित रजिस्टर उपलब्ध है, और वह पूरा भरा जाता जाता रहा है? क्या प्रबंध ने आपदा प्रबंधन करते समय इस रिकार्ड को ध्यान में रखा है?
  5. क्या उस समिति में प्रबंध के, और विभिन्न विभाग के श्रमिक और कारीगर, और जरूरत पड़ने पर इक्सपर्ट व्यक्ति और पड़ोस में रहने वाले भी शामिल किए गए हैं ? यदि हाँ, तो इन सदस्यों का चुनाव करने का अधिकार किसके पास है?
  6. क्या वह समिति नियमित रूप से बैठक करती है, यदि हाँ; तो उसका अन्तराल क्या है?
  7. क्या हर उस बैठक में गत अन्तराल में हुए दुर्घटना जिसमें जान - माल की हानि हुई हो या हो सकती थी, का विवरण दिया गया और उसके कारण पर गहन चर्चा हुई ?
  8. क्या हर उस बैठक में दुर्घटना या उसकी संभावनाओं को रोकने के लिए, जन साधारण से सुझाव लिए जाने की व्यवस्था हैं, अर्थात सुझाव इकठ्ठा करने के लिए कोई 'सुझाव बॉक्स' (suggestion box) रखा गया है ?
  9. हर एक बैठक में क्या जन साधारण से प्राप्त सुझाव, या पूर्व दुर्घटनाओं, या समिति के सदस्यों के विचार से, नए निर्णय लिए गए हैं और पुराने बैठकों में लिए गए निर्णय के प्रभाव की समीक्षा की गयी है?
  10. क्या हर एक बैठक में हुए उपर्युक्त निर्णय का लिखित प्रमाण रखा गया है, और समिति के सदस्यों ने उस पर तिथि के साथ हस्ताक्षर किए हैं ?
  11. कब से यह बैठक हो रही है, और कब से (कितना पुराना), सुरक्षा समिति के निर्णय का प्रमाण रख जा रहा है? यदि हाँ तो इस बैठक के रिकार्ड किसके पास होने चाहिए जहाँ इसे लोग इसे देख सकें?
  12. क्या सुरक्षा समिति के इस कार्य के द्वारा प्रबंध के द्वारा दिए गए सुरक्षा के मान -दंड पर, लक्ष्य की प्राप्ति हो रही है, अर्थात दुर्घटना और उसकी संभावनाओं की संख्या कम होती दिख रही है? यदि नहीं, तो सुरक्षा समिति ने इस कमी को दूर करने के लिए क्या सोचा है ?

२। आपातकाल तैयारी का मान चित्र

आपातकालीन तैयारी के लिए क्या कार्य स्थल का ताजा मान-चित्र सर्व-सुलभ किया गया है? यदि हाँ, तो किस तरह। क्या वह मान -चित्र आगंतुकों जो कार्य स्थल के लिए नए हो सकते हैं, द्वारा आसानी से पढ़ा जा सकता है? क्या उसमें निम्न लिखित स्थिति दर्शायी गई है?

  1. निकास द्वार की स्थिति और मार्ग
  2. आपातकालीन निकास
  3. निषिद्ध क्षेत्र सीमा का रेखांकन (आपातकाल क्षेत्र, जैसे जहाँ प्रदूषण की निकासी होती है, या ज्वलन शील पदार्थ रखे हों, या भारी माल को मशीनों से लाया लेजाया जाता हो, या बिजली का कंट्रोल रूम या लिफ्ट जहाँ आपातकाल में लोग फंसे रह सकते हैं ) जहाँ बिना अनुमति प्रवेश वर्जित है और यंत्रों के उपयोग करने में सावधानी अपेक्षित है।
  4. सुरक्षित क्षेत्र सीमा का रेखांकन (जहाँ उपर्युक्त आपातकालीन निकास के मार्गों से आसानी से पहुँचा जा सकता है, और लोग वहां आपातकाल में जल्दी से इकठ्ठा हो सकते हैं)। इसे असेम्बली पॉइंट भी कहते हैं।
  5. आपातकाल से निपटने और बचाव के उपकरण की स्थिति (जैसे अग्नि शामक यन्त्र, पानी का टैंक और पाइप / पानी और बालू की बाल्टी की स्थिति जिससे आग बुझाने और आग को फैलने से रोका जा सके, तथा प्रथम उपचार के बाक्स की स्थिति )
  6. क्या ज्वलनशील या अधिक दाब पर बहने वाली गैस, भाप या द्रव के पाईप लाइन की स्थिति मान चित्र पर दिखाया गया है।यदि वे जमीन के बाहर हों तो, पाइप का रंग अलग दिखना चाहिये / और यदि जमीन में दबे हों तो बाहर स्मृति चिन्ह होने चाहिय । इस ज्ञान से विभिन्न कारणों से जमीन खोदने के समय लोग सतर्क रह कर काम करते हैं।
  7. आपातकाल में सूचना देने का तरीका (जैसे हूटर) क्या हो, और वह कहाँ कहाँ लगाए गए हैं।
  8. गेट पर रह रहे सुरक्षा कर्मचारियों की आपत्काल ड्यूटी और टेलीफोन की व्यवस्था
  9. प्रत्येक शिफ्ट में उपस्थित प्रथम उपचार में शिक्षित व्यक्तिओं का नाम
  10. नजदीकी अस्पतालों का टेलेफोन नंबर, उसकी दूरी।
  11. अग्नि शामक स्टेशन का टेलेफोन नंबर और उसकी दूरी।
  12. कंपनी के उच्च अधिकारी का टेलेफोन नंबर और निवास की दूरी

३। आपातकाल की सूचना तंत्र

  1. क्या कार्य स्थल पर मान चित्र में दिए गए निकास मार्ग पर अंधेरे में चमकने वाले तीर के निशान बनाये गए हैं? क्या उन स्थानों पर दिन के समय प्रकाश होता है जिससे अंधेरे में चमकने के लिए वे तीर के निशान प्रकाश सोख लें।
  2. क्या कार्य स्थल पर आपातकाल की सूचना देने के लिए ध्वनि यन्त्र (हूटर) लगाये गए हैं? यदि हाँ, तो क्या उसके चलाने की विधि और वह कहाँ लगे हैं, उस स्थान की जानकारी सर्व सुलभ है
  3. गैस या ज्वलनशील पदार्थों के भण्डारण के स्थान पर, क्या ध्वनि यन्त्र (हूटर, धंटी) उपलब्ध हैं जो धुआं या आपातकाल की स्थितिओं के होने पर, अपने आप ही चालू हो जाते है और लोगों को इसकी सूचना मिल जाती है? क्या आग बुझाने हेतु, पानी का छिडकाव भी स्वचालित है?
  4. क्या लोग, इस आपातकाल ध्वनि को पहचान सकते हैं। यदि हाँ, तो क्या उनको इसकी जानकारी देने का कोई नियमित प्रयोग किया जाता है।
  5. क्या उन सभी स्थानों पर प्रकाश की पर्याप्त व्यवस्था है, जहाँ लोग काम करते हैं? क्या बिजली की स्विच दरवाजे पर लगी है, ताकि कार्य स्थल में प्रकाश करने के बाद ही वहां घुसा जाय, और जाते समय स्विच को बंद कर दिया जाय? प्रकाश की जरूरत इसलिए होती है जिससे आपतकालिक निर्देश लोग पढ़ सकें और कार्य स्थल में हमेशा सावधान रहें ?
  6. क्या ओवर हेड क्रएन के लटका कर भारी माल उठाते और ले जाते समय, कोई घंटी बजायी जाती है, जिस से नीचे खड़े व्यक्ति जो ऊपर देख न रहे हों, वे खतरे को जान सकें?
  7. क्या इस तरह का कोई प्रयोग किया गया है जिस से यह पता चले की आपातकाल ध्वनि को सुनने के बाद कितने समय के अन्दर कार्य स्थल के कर्मी, सुरक्षित क्षेत्र में पहुँच जाते हैं। यदि हाँ, तो इस प्रयोग को करने का अधिकतम अन्तराल क्या है? क्या वह अन्तराल, कर्मियों में आपत्काल की ध्वनि की सतर्कता जानने के लिए काफ़ी है? यदि हाँ तो इसका प्रमाण क्या है?

४। सुरक्षा उपकरणों का रख रखाव

  1. अग्नि शामक उपकरणों को एक निश्चित अवधि में चार्ज कर रखा गया है ? क्या इसकी कोई लिस्ट है जिससे याद रहे की इन्हे चार्ज कब करना चाहिये?
  2. क्या पानी का टैंक हमेशा भरा रहता है? इसे कौन देखता है?
  3. बालू या राख की बाल्टी की उचित संख्या क्या होनी चाहिए और क्या वह वहां है ? इसे कौन देखता है?
  4. क्या ध्वनि यन्त्र और/ या स्वचालित हूटर या/ और पानी छिडकाव के यन्त्र के कार्य प्रणाली की नियमित अवधि पर जांच की जाती है? इसे कौन देखता है?
  5. क्या लिफ्ट या होइस्त या क्रएन की नियमित अवधि पर जांच की जाती रही है, और उपयोग के समय ठीक पाई गई? यदि हाँ, तो क्या उसका प्रमाण सर्व सुलभ है, जो कानून के अनुसार कार्य स्थल पर उपस्थित होना चाहिए ? क्या उपकरणों की भार उठाने की अधिकतम क्षमता उन पर लिखी हुई है, जिससे इन उपकरणों का उपयोग करने वालों को जानना अपेक्षित है।
  6. क्या प्रथम उपचार बाक्स में उपलब्ध सामग्री की लिस्ट उसमें लगी है? क्या वह सामग्री ख़तम होने पर वापस तुंरत भर दी जाती है? क्या उस बाक्स पर उन लोगों के नाम भी लिखे हैं जो प्रत्येक शिफ्ट में, इस कार्य के लिए विशेष रूप से शिक्षित किए गए हैं?

५। कार्य के दुष्प्रभाव से शरीर की रक्षा

  1. क्या कार्य करने वालों को हैलमेट (सर के लिए), दस्ताना (हाथ के लिए), चश्मा(आँख के बचाव के लिए) कान बंद करने का प्लग (तीव्र ध्वनि से बचाव ), जूते (पैरो के लिए), चुस्त कपड़े जरूरी हैं ? यदि हाँ, तो क्या वे उन्हें यह वेश-भूषा उपलब्ध हैं जिन्हें इसे चाहिए? और क्या, इनकी क्वालिटी को देखा जा चुका है ताकि इन्हे पहनने से कार्य करने वालों को असुविधा नहीं हो ?
  2. यदि हाँ, तो क्या यह शारीरिक सुरक्षा से सम्बंधित सूचना सर्व-सुलभ है, और सभी लोग कार्य के लिए अपनी निश्चित वेश भूषा में ही रह रहे हैं? इसे कौन देखता है?
  3. क्या कार्य स्थल पर, ध्वनि, गर्मी, सर्दी, वायु प्रदूषण, प्रकाश और फर्श पर गन्दगी या चिकनाई मनुष्य के कार्य को कठिन बना रहे हैं? क्या इनके निवारण के लिए मान दंड बनाये गए हैं, और सुरक्षा के साधन पर्याप्त हैं। इसे कौन देखता है?
  4. क्या मशीनों के चलाने के लिए पहिये या बेल्ट या अन्य गतिशील पुर्जों के ऊपर सुरक्षा गार्ड लगे हैं? क्या उन मशीनों के चालक इस खतरे को और बचाव के साधन को जानते हैं, और यह चेतावनी मशीन के पास लिखी है? इसे कौन देखता है?
  5. क्या कार्य करने वालों के स्वास्थ्य की नियमित अवधि में जांच की जाती है, जिससे कार्य के द्वारा होने वाले दुष्प्रभाव का ज्ञान हो, और बचाव के पर्याप्त प्रबंध तुंरत किए जा सके? यदि हाँ तो अन्तराल, और जांच क्या प्रयाप्त हैं?
  6. क्या स्वास्थ्य खराब होने पर, कार्य से छुट्टी दी जाती है? क्या प्रबंधक यह निश्चित करते हैं की बीमार अवस्था में कार्य करने पर रोक है ? क्या इसका रिकार्ड रखा जा रहा है जिससे यह प्रमाणित हो ?
  7. कार्य करने के लिए, व्यक्तियों की कम से कम और अधिकतम आयु, तथा स्त्री का काम क्या कानून के अनुसार है? क्या इसकी सूचना सर्व०सुलभ की गई है? ( बाल, वृद्ध, और गर्भवती स्त्री से कार्य लेना भारत में गैर-कानूनी है)। इसे कौन देखता है?
  8. क्या जोखिम भरे कार्य करने वालों को या जिनकी आय एक सीमा से कम है, उन्हें दुर्धटना के इलाज के लिए आर्थिक सहायता उपलब्ध है? क्या उन्हें इंश्योरेंस मिली हुई है, जो इलाज के खर्च को पूरा करेगा या, इसकी जिम्मेवारी प्रबंध लेता है? इसे कौन देखता है?
  9. क्या कानून के अनुसार, कार्य करने वालों जिन्हें काम करने से शारीरिक हानि या थकान होती है, उनके दैनिक कार्य-काल की सीमा तय है, और उन्हें समय पर छुट्टी दी जाती है? इसे कौन देखता है जो इसे रिकार्ड के द्वारा प्रमाणित कराएगा ?

६। आपत्कालीन/ निषिद्ध क्षेत्र की रख रखाव

  1. क्या ज्वलनशील गैस या तेल के भंडार को मुख्य बिल्डिंग से अलग और तार से घेर कर रखा गया है और वहां सावधानी के लिए बोर्ड लगे हुए है?
  2. क्या इस भंडार के लिए कानून के अनुसार अनुमति है? यदि हाँ तो उसका प्रमाण?
  3. क्या पानी के भडार के लिए खुदे गड्ढे या बोर वेल के लिए बने गड्ढे, तार से घिरे या लोहे की जाली या ढक्कन से बंद किए गए हैं? क्या सावधानी के निर्देश वहां लिखे हैं? (भारत में घर या कोई भी निर्माण करते समय, पानी के लिए बने टैंक में, वहां कार्य करने वाले मजदूरों के छोटे बच्चे या पानी पीने आए कुत्ते या गाय के गिरने का खतरा होता है। बोर वेल के खुले छेद में भारत में कई बच्चों की गिर कर मौत हो गयी है)
  4. क्या बिजली की वायरिंग, दिश्त्रिबुशन बॉक्स, कंट्रोल रूम आदि, तकनिकी मानक पर सुरक्षित हैं? इन पर खतरे का निशान है, डोर लोक लगे हैं, प्रवेश निषिद्ध है, और केवल वही लोग इसको हाथ लगायें जो विद्युत्- सुरक्षा में शिक्षित हैं।
  5. क्या बिजली के उपकरण के लिए सुरक्षा के साधन जैसे दस्ताने, चप्पल और अन्य साधन उपलब्ध हैं?
  6. क्या कार्य स्थल से निकाले गए कचरे, ठोस और द्रव के सुरक्षित निकास की नियमित व्यवस्था है? क्या वह इकठ्ठा तो नहीं होते जा रहे जिस पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा? इसे कौन देखता है?

७। आपातकालीन शिक्षा

  1. क्या व्यक्तियों को विभिन्न आपत्काल से निबटने की शिक्षा दी गई है? यदि हाँ, तो उसकी योजना क्या थी और उसके वास्तविक उपलब्धि का क्या प्रमाण है? यदि यह लिखित में है तो, उसका सन्दर्भ?
  2. क्या उन व्यक्तियों का नाम जिन्होंने आपत्काल की शिक्षा प्राप्त की हैं, उसकी जानकारी सूचना तंत्र द्वारा सभी व्यक्तियों तक पहुँची ? किस तरह यह जानकारी दी गई ही, उसका प्रमाण या उदाहरण ?

८। दुर्घटना होने पर आपत्कालीन तैयारी की परीक्षा या, उसका काम आना

  1. आपत्काल की तैयारी होने पर दुर्घटना होना कठिन होता है, किंतु यदि कोई दुर्घटना होती है या उसकी स्थिति बनी है, तो उसे किस तरह निपटा गया? अर्थात किस तरह जान माल की रक्षा की जा सकी?
  2. क्या वे उपाय प्रभावी थे और टीम वर्क और लीडरशिप का सही प्रदर्शन देखने को मिला? यदि नहीं, तो सुरक्षा समिति ने इससे क्या सीख ली?
  3. दुर्घटना रजिस्टर में इस तरह की धटनाएं लिखी गयीं? जिस संद्रर्भ से यह ज्ञान हो सकता है की आपत्काल तैयारी की किन व्यवस्था के कमी से यह दुर्घटना हुई?
  4. और दुबारा और कहीं अन्य स्थान पर यही स्थिति न पैदा हो, उसके लिए क्या निर्णय लिए गए, और सुरक्षा समिति ने क्या इसकी लिखित जानकारी रखी है?
  5. जान का जोखिम ले कर और सुरक्षा नियमों का पालन करते हुए जिन भी व्यक्तियों (बाहरी या स्वयं के लोग) ने जान और माल की रक्षा की है, क्या उन्हें प्रस्कृत किया गया है, या उनकी सार्वजनिक प्रसंशा हुई है ? एक मान्यता है यह कार्य, अन्य लोगों को प्रेरणा देने के लिए और लोगों में दूसरे की मदद और सामजिक लीडरशिप के विकास में सहायक है।